सनातन धर्म के कई संप्रदायों का आधार सूत्र वैष्णव भक्ति है. सबसे प्राचीनतम संप्रदायों में से एक निम्बार्क संप्रदाय इन्हीं में से एक है, इसमें प्रेम के सिद्धांतों को ही मान्यता प्राप्त है अर्थात ईश्वर का प्रेम-दर्शन ही इस संप्रदाय का मूल आधार है. यह संप्रदाय प्रेम के स्वरूप श्री सर्वेश्वरी राधा और श्री सर्वेश्वर कृष्ण को अनन्य रूप से पूजती है.
वहीं, प्रेम के तीसरे स्वरूप को इस संप्रदाय में सखीजन कहते हैं. निम्बार्क संप्रदाय में सखी प्रेम को ही जीवन का सत्य समझा जाता है. सरल शब्दों में कहें तो, इस संप्रदाय में श्री राधा और श्री कृष्ण के साथ साथ राधा रानी की सखियाँ भी देवी तुल्य हैं जिनका पूजन आवश्यक है. इन्हीं सब लीलाओं को अपनी काव्य रचनाओं में स्वामी हरिदास जी ने पिरोया है.
इतिहासकारों के अनुसार, स्वामी हरिदास का जन्म 3 सितंबर, 1478 को हुआ था. उनका जन्म वृंदावन के राजपुर नाम के गांव में हुआ था. वे सनाढ्य जाति से थे और उनके पिता का नाम गंगाधर एवं माता का नाम चित्रादेवी था. माना जाता है कि स्वामी हरिदास भी अन्य की भांति ही ग्रहस्थी थे लेकिन एक दिन अचानक दीपक से पत्नी के जलकर मर जाने के वियोग में वे वृंदावन जाकर रहने लगे और उन्होंने विरक्त संन्यास धारण कर लिया.
ऐसा भी माना जाता है कि स्वामी हरिदास की उपासना से प्रसन्न होकर बांकेबिहारी की मूर्ति का प्राकट्य हो हुआ था जो आज भी वृंदावन में विराजमान है और पूजी जाती है. हरिदास महान संगीतज्ञ भी थे और तानसेन उनके ही परम शिष्य थे. इतिहास में दर्ज है कि हरिदास जी की मृत्यु 95 वर्ष की आयु में 1573 के आसपास हुई थी.
स्वामी हरिदास ने हरि को स्वतंत्र और जीव को भगवान के अधीन मानकर अपनी रचनाएं की, अपनी रचनाओं में राधा-कृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया जो हृदय को भाव विभोर कर देने वाली हैं.
स्वामी हरिदास के पदों से कृष्ण के चंदन सी सौंधी महक आती है।
जौं लौं जीवै तौं लौं हरि भजु, और बात सब बादि
दिवस चारि को हला भला, तू कहा लेइगो लादि
मायामद, गुनमद, जोबनमद, भूल्यो नगर बिबादि
कहि ‘हरिदास लोभ चरपट भयो, काहे की लागै फिरादि
(जब तक ज़िंदा रहूं तब तक हरि यानी कृष्ण का नाम भजूं और बाकी सब काम बाद में हैं) इस प्रकार के भावों से साथ भक्ति-पदों की रचना करने वाले हरिदास ब्रज व कृष्ण से अत्यंत ही निकट थे।
ज्यौंहिं ज्यौंहिं
वृन्दावन में कहा जाता है कि श्रीकृष्ण को यहां पर प्रकट करने का श्रेय स्वामी हरिदास को ही जाता है। वृन्दावन में उन्होंने निधिवन को अपनी स्थली बनाया था और आज भी निधिवन में एक जगह पर हरिदास का समाधि स्थल है। कहते हैं कि हरिदास को भगवान ने अपनी युगल छवि के दर्शन दिए थे।
ज्यौंहिं ज्यौंहिं तुम रखत हौं,त्योंहीं त्योंहीं रहियत हौं, हे हरि
और अपरचै पाय धरौं सुतौं कहौं कौन के पैंड भरि
जदपि हौं अपनों भायो कियो चाहौं,कैसे करि सकौं जो तुम राखौ पकरि
कहै हरिदास पिंजरा के जानवर लौं तरफराय रह्यौ उडिबे को कितोऊ करि
(जैसे जैसे तुम रखते हो, हम वैसे ही रहते हैं, हे हरि। यहां पिंजड़ के जानवर का अर्थ आत्मा से है जो मुक्ति के लिए तड़पड़ा रही है)
श्री वल्लभ श्री वल्लभ श्री
हरिदास जी के संगीत की भी इतनी ख़्याति थी कि तानसेन व बैजू बावरा उनके शिष्य थे। अकबर भी भेष बदलकर हरिदास का संगीत सुनने के लिए आते थे। स्वामी ब्रज में पूरी तरह से रम चुके थे, उन्होंने कृष्ण की भक्ति पर पद लिखे, ब्रजभाषा में लिखे व अपना सम्पूर्ण जीवन भी ब्रज क्षेत्र में ही बिताया।
स्वामी हरिदास के कुछ और पद
श्री वल्लभ श्री वल्लभ श्री वल्लभ कृपा निधान अति उदार करुनामय दीन द्वार आयो
कृपा भरि नैन कोर देखिये जु मेरी ओर जनम जनम सोधि सोधि चरन कमल पायो
कीरति चहुँ दिसि प्रकास दूर करत विरह ताप संगम गुन गान करत आनंद भरि गाऊँ
विनती यह यह मान लीजे अपनो हरिदास कीजे चरन कमल बास दीजे बलि बलि बलि जाऊँ
(यहां स्वामी हरिदास ईश्वर की कृपा मानते हैं कि वह उनके द्वार पर आए। हरिदास विनती करते हैं कि ईश्वर उन्हें अपना बना ले)
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